भगवत् कृपा हि केवलम् !

भगवत् कृपा हि केवलम् !

Monday 31 January 2011

बापू अमर है.......वो मरे नहीं है........आज भी जिन्दा है !

३० जनवरी १९४८ के दिन महात्मा गाँधी की महज शारीरिक हत्या कर दी गयी, लेकिन बापू मरे नहीं। अपने विचारों और आदर्शों के साथ वो आज भी जिन्दा है। ६३ वर्ष बीत गए। इतनी लम्बी अवधि में एक पूरी पीढ़ी गुजर जाती है, राष्‍ट्र के जीवन में अनगिनत संघर्षों, संकल्पों और समीक्षाओं का दौर आता और जाता रहा। इतने उतार और चढाव के बावजूद अगर आज भी किसी का वजूद कायम है तों निश्चय ही उनमें कुछ तों चमत्कार होगा। बापू को इसी नजरिये से देखने की जरूरत है।

अपने भारत को आजादी दिलाने के बाद भी वे संतुष्‍ट नहीं थे। सत्ता से अलग रहकर वह एक और कठिन काम में लगे थे। वे देश की आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी के लिए एक नए संघर्ष की उधेड़बुन में थे। रामधुन, चरखा, चिंतन तथा प्रवचन उनकी दिनचर्या थी। एक दिन पहले ही उनकी प्रार्थना सभा के पास धमाका हुआ था लेकिन दुनिया का महानतम सत्याग्रही विचलित नहीं हुआ। वह स्वावलंबी भारत का स्वप्न देखते थे। वह गाँवों को अधिकार संपन्न, जागरूक तथा अंतिम व्यक्ति को भी देश का मजबूत आधार बनाना चाहते थे। जब दिल्ली में उनके कारण आई सरकार स्वरुप ले रही थी, स्वतंत्रता का जश्न मन रहा था, तब बापू दूर बंगाल में खून खराबा रोकने के लिए आमरण कर रहे थे। बापू की दिनचर्या में परिवर्तन नहीं, विचारों में लेशमात्र भटकाव नहीं, लम्बी लड़ाई के बाद भी थकान नहीं और लक्ष्य के प्रति तनिक भी उदारता नहीं। अहिंसा को सबसे बड़ा हथियार मानने वाले बापू निर्विकार भाव से अपनी यात्रा पर चले जा रहे थे की तभी एक अनजान हाथ प्रकट हुआ जो आजादी की लड़ाई में कही नहीं दिखा था, ना बापू के साथ, ना सुभाष के साथ और ना भगत सिंह के साथ। उस हाथ में थी अंग्रेजों की बनाई पिस्तोल, उससे निकाली अंग्रेजों की बनाई गोली, वह भी अंग्रेजों के दम दबा कर भाग जाने के बाद, तथाकथित हिन्दोस्तानी हाथ से। वह महापुरुष जिसके कारण इतनी बड़ी साम्राज्यवादी ताकत का सब कुछ छीन रहा था, फिर भी उनके शरीर पर एक खरोंच लगाने की हिम्मत नहीं कर पाई, जिस अफ्रीका की रंगभेदी सरकार भी बल प्रयोग नहीं कर सकी थी, उनके सीने में अंग्रेजो की गोली उतार दी एक सिरफिरे कायर ने। वह महापुरुष चला गया हे राम कहता हुआ। 
गाँधी जी के राम सत्ता और राजनीति के लिए इस्तेमाल होने वाले राम नहीं थे बल्कि व्यक्तिगत जीवन में आस्था तथा आदर्श के प्रेरणाश्रोत थे। गाँधी जी ‘ईश्वर- अल्ला तेरो नाम’ तथा ‘वैष्णवजन तों तेने कहिये प्रीत पराई जाने रे’; की तरफ सबको ले जाना चाहते थे। बापू के आदर्श राम, बुद्ध, महावीर, विवेकानंद तथा अरविन्द थे। हिटलर तथा मुसोलिनी को आदर्श मानने वाले उन्हें कैसे स्वीकार करते? गाँधी सत्य को जीवन का आदर्श मानते थे, झूठ को सौ बार सौ जगह बोल कर सच बनाने वाले उन्हें कैसे स्वीकार करते? शायद इसीलिए महात्मा के शरीर को मार दिया गया।
क्या इससे गाँधी सचमुच ख़त्म हो गए? बापू यदि ख़त्म हो गए तों मार्टिन लूथर किंग को प्रेरणा किसने दी? नेल्सन मंडेला ने किस की रोशनी के सहारे सारा जीवन जेल में बिता दिया, परन्तु अहिंसक आन्दोलन चलते रहे और अंत में विजयी हुए? दलाई लामा किस विश्वास पर लड़ रहे है इतने सालो से? खान अब्दुल गफ्फार खान अंतिम समय तक सीमान्त गाँधी कहलाने में क्यों गर्व महसूस करते रहे? अमरीका के राष्ट्रपति आज भी किसको आदर्श मानते है और दुनिया में बाकी लोगो को भी मानने की शिक्षा देते रहते है?
संयुक्त राष्ट्र संघ के सभा कक्ष से लेकर १४२ देशों की राजधानियों ने महात्मा गाँधी को जिन्दा रखा है। कही उनके नाम पर सड़क बनी, तों कही शोध या शिक्षा संस्थान और कुछ नहीं तों प्रतिमा तों जरूर लगी है।जिसको भारत में मिटाने का प्रयास किया गया, वह पूरी दुनिया में जिन्दा है। महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने कहा कि आने वाली पीढियां शायद ही इस बात पर यकीन कर सकेंगी कि कभी पृथ्वी पर ऐसा हाड़ मांस का पुतला भी चला था। जिस नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को गाँधी के विरुद्ध बताया गया, उन्होंने जापान से महात्मा गाँधी को राष्‍ट्रपिता कह कर पुकारा तथा कहा कि यदि आजादी मिलती है तों वे चाहेंगे की देश की बागडोर राष्ट्रपिता  सम्हालें, वह स्वयं एक सिपाही की भूमिका में ही रहना चाहेंगे। परन्तु बापू को सत्ता नहीं, जनता की चिंता थी, उसकी तकलीफों की चिंता थी। 
उन्होंने कहा कि भूखे आदमी के सामने ईश्वर को रोटी के रूप में आना चाहिए। यह वाक्य मार्क्सवाद के आगे का है। उन्होंने कहा की आदतन खादी पहने, जिससे देश स्वदेशी तथा स्वावलंबन की दिशा में चल सके, लोगों को रोजगार मिल सके। नई तालीम के आधार पर लोगों को मुफ्त शिक्षा दी जाये। लोगों को लोकतंत्र और मताधिकार का महत्व समझाया जाये और उसके लिए प्रेरित किया जाये। उन्होंने सत्ता के विकेन्द्रीकरण, धर्म, मानवता, समाज और राष्‍ट्र सहित उन तमाम मुद्दों की तरफ लोगों का ध्यान खींचा जो आज भी ज्वलंत प्रश्न है।
वे और उनके विचार आज भी जिन्दा है और प्रासंगिक है। तभी तों जब अमरीका में बच्चो द्वारा अपने सहपाठियों को उत्तेजना तथा मनोरंजनवश गोलियों से भून देने की घटनाएँ कुछ वर्ष पूर्व हुई थी तों वहा की चिंतित सरकार ने बच्चो को बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं बांटे, स्कूल के दरवाजो पर मेटल डिटेक्टर नहीं लगाये, हथियारों पर पाबन्दी नहीं लगे, बल्कि बच्चो को गाँधी की जीवनी, शिक्षा तथा विचार और उनके कार्य बताने का फैसला किया। उसी अमरीका में कुछ वर्ष पूर्व जब हिलेरी क्लिंटन ने बापू पर कोई हलकी बात कर दिया तों अमरीका के लोगों ने ही इतना विरोध किया कि चार दिन के अन्दर ही हिलेरी को खेद व्यक्त करना पड़ा।

गुजरात की घटनाओं के समय जब हैदराबाद में दो समुदाय के हजारों लोग आमने-सामने आँखों में खून तथा दिल में नफरत लेकर एकत्र हो गए, तों वहा दोनों समुदाय की मुट्ठी भर औरतें मानव शृंखला बना कर दोनों के बीच खड़ी हो गयी। यह गाँधी का बताया रास्ता ही तों था, वहा विचार के रूप में गाँधी ही तों खड़े थे। गुजरात में पिछले दिनों में राम, रहीम और गाँधी तीनों को पराजित करने की चेष्टा हुई, लेकिन हत्यारे ना गांधी के हो सकते है, ना राम के ना रहीम के। 
महत्मा गाँधी तों नहीं मरे, फिर हत्यारे ने मारा किसे था? ऐसे सिरफिरे लोग बापू को पिछले ६३ वर्षो से ख़तम नहीं कर पाए है ,और नाही कभी कामयाब हों पाएंगे। लेकिन जिम्मेदारी और जवाबदेही बापू को मानने वालो की भी है की सत्ता की ताकत से महात्मा गाँधी को बौना करने, उन्हें गाली देने और गोली मरने वालो से मानवता को बचाएं। रास्ता वही होगा जो गाँधी ने दिखाया था। ६३वा वर्ष जवाब चाहता है दोनों से की तुमने गाँधी को मारा क्यों था? उद्देश्य क्या था? तुम कहा तक पहुंचे? उनके मानने वालों से भी कि आर्थिक गैर बराबरी, सामाजिक गैर बराबरी के खिलाफ, नफ़रत और शोषण के खिलाफ बापू द्वारा छेड़ा गया युद्ध फैसलाकुन कब तक होगा? इन सवालों के साथ महात्मा गाँधी तथा उनके विचार आज भी जिन्दा है और कल भी हमारे बीच मौजूद रहेंगे।

राष्ट्रपिता बापू के ६३वी पुण्यतिथि (३० जनवरी) के अवसर पर भावभीनी श्रद्धांजलि.


आप सभी के विचार आमंत्रित है - अजय दूबे

Tuesday 25 January 2011

गणतंत्र के मायने ...

मित्रो आप सभी को भारत के 62वे गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!। देश की आजादी को छह दशक बीत चुके हैं। धीरे-धीरे लोकतंत्र प्रौढ़ हो रहा है। ऐसे में लोकतंत्र में सियासी फसल काटने को बेताब स्‍वार्थी लोगों के बीच एक नए तंत्र लूटतंत्र का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। मंत्री, सांसद, विधायक और अन्‍य जनप्रतिनिधि इस नए तंत्र के बिना शायद खुद को अधूरा समझते हैं। इसी कारण सरकारी से लेकर निजी स्‍तर पर उनके कुनबे में लूटपाट करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। ऐसे में गणतंत्र की स्‍थापना की वर्षगांठ पर जश्‍न के क्‍या मायने हैं, इसे भी सोचना होगा। राशन की दुकानों से लेकर विकास कार्यों के टेंडरों लेने तक सब जगह लूटतंत्र का ही बोलबाला नजर आ रहा है। गरीबों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है, दबंग और बाहुबली ही उन पर राज करते नजर आ रहे हैं। छोटे व कमजोर लोगों की तब तक सुनवाई नहीं होती जब तक वह कानून को हाथ में लेने की स्थिति में नहीं आ जाते। इन हालातों में 26 जनवरी, 15 अगस्‍त और 2 अक्‍टूबर मनाने की परंपरा महज दिखावा बनती जा रही है। इन कार्यक्रमों में नेता हों या अफसर सभी सत्‍य, अहिंसा और ईमानदारी के लिए लंबे-लंबे भाषण देने से गुरेज नहीं करते। लेकिन उनकी यह नसीहत महज कार्यक्रम तक ही सीमित रह जाती है। अगले ही दिन जब वह अपने कार्यालय में होते हैं तो सुर, लय और ताल सब दूसरे हो जाते हैं। भ्रष्‍टाचार के बारे में घंटों बयानबाजी करने वाले नौकरशाहों या जनप्रतिनिधियों से उनकी ईमानदारी के बारे में पूछा जाए तो शायद कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। इतना ही नहीं यदि मीडिया उनकी बेईमानी की राह में रोड़ा न बन जाए तो देश के महत्‍वपूर्ण संस्‍थान और ऐतिहासिक इमारतें भी वह अपने नाम करा लें। लूट-खसोट और मार-काट का उनका सिलसिला शायद अंतहीन हो जाए। ऐसे में अनगिनत अरुषी और शीलू दरिंदगी का शिकार हो सकती हैं। 
अब जबकि हम गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं ऐसे में आडंबर और दूसरों को नसीहत देने की बजाए खुद के बारे में सोचें। यदि हम स्‍वयं ईमानदार हो जाएं तो दो-चार लोगों को इस राह पर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। यदि वह सीधे रास्‍ते से बात नहीं मान रहे तो जनसूचना अधिकार कानून को हथियार बनाकर उनके विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया जा सकता है। आज चुनौतियां ढ़ेर सारी हैं। कहीं आतंकवाद तो कहीं अलगाववाद रोकने की चुनौती है। भुखमरी के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं से निबटने की चुनौती लेकिन यदि हम वाकई लोकतंत्र और गणतंत्र में विश्‍वास करते हैं तो खुद को बुराइयों से बचाना होगा, एक-दूसरे की मदद को हाथ बढ़ाना होगा। तभी वीर शहीदों का सपना पूरा होगा और भारत एक खुशहाल राष्ट्र  बन सकेगा। इतना ही नहीं जनप्रतिनिधियों के चयन में भी सावधानी बरतने की जरूरत है। ऐसे लोगों का तिरस्‍कार होना चाहिए जो समूची व्‍यवस्‍था के लिए नासूर बन चुके हैं। अपराधियों और दबंग छवि के लोगों को सबक सिखाना होगा तभी गरीबों, वंचितों व जरूरतमंदों को उनका हक मिल सकेगा। आरक्षण देने के बजाए व्‍यवस्‍था में सुधार की जरूरत है जिसमें देश का युवा महती भूमिका निभा सकता है।
कुछ बाते गणतंत्र दिवस परेड के सन्दर्भ में ......
हर साल टीवी पर मै दिल्ली में होने वाले गणतंत्र दिवस की परेड देखता हूं। फौजियों की बूटों की ताल से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। झांकियों में प्रगति की बानगी देख कर सीना गर्व से फूल जाता है। लेकिन परेड की कुछ बातें समझ में नहीं आतीं। 
जब सीमा पर शहीद होने वाले किसी सैनिक की मां या युवा पत्नी को अलंकरण प्रदान करने के लिए राष्ट्रपति के सामने लाया जाता है तो ऐसा मान लिया जाता है कि उस विशेष क्षण में वह स्त्री सिर्फ गर्व का अनुभव करेगी। इसलिए उसके भावुक हो उठने या रो पड़ने की स्थिति में उसे संभालने के लिए उसके साथ कोई परिजन नहीं होता। सिर्फ अकड़ कर चलते हुए वर्दीधारी सजीले एस्कॉर्ट्स होते हैं। वहां स्टेज पर जाते समय उस असहाय औरत को क्या इस बात की घबराहट नहीं सताती होगी कि उसकी आगे की जिंदगी कैसे कटेगी ? क्या वह अखबारों में आदर्श घोटाले , पीएफ के गबन और मुआवजे के चेक बाउंस होने की खबरें नहीं पढ़ती होगी। वहां स्टेज पर दिए जाने वाले सम्मान से उसका क्या होगा , यदि गांव के सरपंच ने उसका जीना हराम कर रखा हो। यह हमारे गणतंत्र का दूसरा चेहरा है , जो मानता है कि गणतंत्र के उत्सव का अर्थ है स्टेज पर प्रायोजित सम्मान और मशीनी उत्सव। उसमें व्यक्ति और उसकी मानवीय भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है।  
सुना है ताड़देव के विक्टोरिया मेमोरियल ब्लाइंड स्कूल और दादर के कमला मेहता ब्लाइंड स्कूल के बच्चे भी इस बार गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने के लिए प्रयास कर रहे हैं। यह सुन कर मन में सवाल उठा कि हमने आज तक गणतंत्र दिवस परेड में विकलांग नागरिकों और बच्चों को क्यों नहीं शामिल कर रखा था। आखिर रिटायर सैन्यकर्मियों को जीप पर और छोटे बहादुर बच्चों को हाथी पर लेकर तो चलते ही हैं। कोई कह सकता है कि गणतंत्र दिवस पर हम अपनी सुंदर चीजें पेश करते हैं। और विकलांग नागरिकों को सुंदर कह कर तो नहीं प्रस्तुत कर सकते। यह व्यक्ति के दिल की ओछी सोच हो सकती है , कोई राष्ट्र ऐसा कैसे सोच सकता है ? उत्सव का सौंदर्य , यथार्थ को दरकिनार कर नहीं पैदा किया जा सकता। शायद इसी मानसिकता की वजह से एक तरफ जीडीपी बढ़ती है , तो दूसरी ओर भूख से मौतें। हर तरह के लोगों को गणतंत्र के उत्सव में शामिल कर हम दिखा सकते हैं कि यह राष्ट्र अपने प्रत्येक नागरिक को समान महत्व और स्नेह देता है। और हमने उनके लिए कितने तरह के इंतजाम किए हैं। 

आप क्या सोचते है .....? आपके विचार आमंत्रित है 

Monday 17 January 2011

देशद्रोह और मानवाधिकार

जकल बहुत चर्चा में आने वाला शब्द 'देशद्रोह' और 'मानवाधिकार'. जिसकी वजह हैं कश्मीरी अलगाववादी, सैयद अली शाह गिलानी ,नक्सलवादी समूह, अरुंधती रॉय  और अब विनायक सेन. आइये हम भी इस पर कुछ बात करते है ..
देशद्रोह......???  मानवाधिकार किसके
बहुत सारे बुद्धिजीवी, लेखक ,विचारक ,पत्रकार एवं ब्लोगर इसपर काफी कुछ लिख चुके हैगिलानी की करतूते और अरुंधती के विचार किसी से छुपी नहीं है ज्यादातर लोगो ने भारत के अलगाववादियों ,नक्सलियों की आलोचना की थी यहाँ तक की गिलानी और रॉय पर तो देशद्रोह का मुकदमा चलाये जाने की वकालत कर चुके है और भारत सरकार ने यह कहकर की इन्हे सस्ती लोकप्रियता मिल जाएगी मुकदमा करने से मना कर दिया था तब मुझे भी बहुत बुरा लगा था
पर अब एक और नाम डॉ.विनायक सेन जिन्हें छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने देशद्रोही करार दिया है और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है अब वही लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग अदालत के इस फैसले की तीखी आलोचना कर रहे हैपर क्यों ???
क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज से शिक्षा प्राप्त विनायक सेन के बारे में लिखते हुए अभी फ्रांसीसी नागरिक फ्रान्क्वा ग्रोशिये की किताब भारत में आत्महीनता की भावना की कुछ पंक्तिया याद आ रही हैं। पुस्तक में फ्रान्क्वा मदर टेरेसा के सरोकारों पर भी सवाल उठाते दिखते हैं। उनके अनुसार, मदर भले ही कोलकाता के गरीबों की मसीहा रही हों, उनकी सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया हो, लेकिन भारत की बदहाली, बेबसी के प्रचार को ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। बकौल लेखक, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कभी भी टेरेसा को भारत की किसी भी अच्छी बात की चर्चा करते हुए नहीं देखा गया। और फ़िर लेखक की बात आगे धर्मांतरण तक जाती है।
तो सीधी सी बात यह है कि केवल आपकी सेवाधर्मिता ही सबकुछ नहीं होता, आपकी नीयत भी कसौटी पर हर वक्त हुआ करती है। साथ ही आप जिस भी देश में रहें वहां की रीति-नीतियों, तौर-तरीकों, क़ानून व्यवस्थाओं के प्रति सम्मान, दुनिया में अपने राष्ट्र की अच्छी छवि का निर्माण करना भी हमारे कर्तव्यों में शुमार होता है। देशद्रोह के अपराध में छत्तीसगढ़ की एक निचले अदालत में विनायक को उम्र कैद की सज़ा सुनाए जाने और उसके बाद दुनिया भर में प्रायोजित किए जा रहे बवाल के बीच हमें यहां कहने की इजाज़त दीजिए कि मानवाधिकार का पाठ थ्येन-आनमन चौक के हत्यारों वाले देश के माओ से सीखने की हमें ज़रूरत नहीं है। वास्तव में दुनिया में हमारी पहचान एक ऐसे सॉफ्ट देश के रूप में है/रही है, जो कायरता की हद तक सहिष्णु है। यहां मानवाधिकार हमारी संस्कृति है। 
पहली बात यह कि किसी एक आरोपी के लिए इतना हाय-तोब्बा मचाया जाना उचित है? ऐसे फैसले तो इस देश में रोज होते हैं। बहुत सारे फैसले ऊपरी अदालतों में जा कर पलट भी जाते हैं। लेकिन इतनी-सी बात के कारण हम देश की न्याय प्रणाली को ही कठघरे में खड़े कर दें? विनायक सेन के पास तो फ़िर भी वकीलों, पूर्व जजों, प्रॉपगैंडाबाजों की फौज है। इतनी न्यायिक प्रक्रियाओं से तो देश के एक सुविधाहीन आम आदमी को भी गुजरना पड़ता है। लेकिन न्याय का अपना तरीका है, वह अपने ही हिसाब से चलेगी। यह किसी भी व्यक्ति के लिए तो बदलने से रही।
फिर दूसरा सवाल यह आता है कि क्या वास्तव में विनायक इतने बड़े नायक हैं जिनके विरुद्ध एक फैसला पर दुनिया भर में देश को बदनाम कर इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया जाए? जबाब है बिलकुल नहीं। चूंकि यहां पर एक रस्म चली है कि अगर आपका कोई कदम देश के खिलाफ हो तो आप हाथों हाथ लिए जाएंगे, अगर आप भारत को गाली दे सकते हों तो आपकी मामूली चीज़ों को भी देवता बना दिया जाएगा। बस केवल इसीलिए विनायाकवादी यहां नायकत्व का झांसा देते दिखते हैं। इस रस्म की अदायगी में अभी एक लेखक ने सेन की तुलना महात्मा गांधी से कर दी। सोच कर अपना सर ही पीट सकता है कि गुलामी के समय में भी सशक्त क्रांति का विरोध करने वाले महामानव की तुलना एक ऐसे व्यक्ति से की जाए जिसे हिंसक संगठनों को बढ़ाबा देने के अपराध में उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है। 
सवाल यह है कि अगर आपने कुछ मुट्ठी भर समूहों को अपनी सेवाओं के द्वारा अपना मुरीद भी बना लिया हो तो भी आपको क्या राष्ट्र को ललकारने की इजाज़त दे दी जाए? 
अभी हाल में आई एक रिपोर्ट जो कर्नाटक के वीरप्पन के प्रभाव वाले क्षेत्र रहे बांदीपुर अभयारण्य के आसपास के क्षेत्र  के लोगो से वार्ता पे आधारित हैइसमे वीरप्पन के प्रति लोगों का आदर सुन कर ताज्जुब हुआ। बताया गया है की वीरप्पन के बारे में कुछ टिका-टिप्पणी करने पर लोगो की लानत झेलनी पड़ी थीतो क्या उस समर्थन के बदौलत हम वीरप्पन को मसीहा मान लें? हालाकि वीरप्पन ने कभी किसी विचारधारा के लिए काम करने का दावा नहीं किया। विचारधारा की चादर ओढ़कर पूजिवादियों की लेवी पर ही आश्रित नक्सलियों के समर्थक होने का आरोप जिन पर साबित हुआ है उन्हें हम क्या कहें? बात केवल इतनी है कि कुछ समूह इकतरफा झूठ फैला कर चाहे दुनिया भर में देश को बदनाम करें, लेकिन हिंसा या उसका समर्थन करने की ज़रूरत इन्हें पड़ती ही इसलिए है क्योंकि इनके पास तर्क नहीं होते।
आप उनसे पूछ कर देखिए (जैसा कि श्रीमती एलीना सेन से एक पत्रकार ने फैसले के दिन पूछा था) कि एक शिशु रोग विशेषज्ञ को ' बुजुर्ग ' नक्सल पोलित ब्यूरो सदस्य सान्याल का इलाज़ करने के लिए 33 बार उनसे जेल में मिलने की ज़रूरत क्यों होती है? तो बौखला कर ये अग्निवेश की तरह समूचे मीडिया को ही बिका हुआ साबित करना शुरू कर देंगे। सवाल यह है कि अगर आपको सेवा ही करना है तो वो करने से रोका किसने है? विनायक का सेवा या उनका योगदान क्या बाबा आमटे और उनके लोगों द्वारा किये जा रहे कार्यों का पासंग भी है? चित्रकूट में जा कर नाना जी देशमुख द्वारा स्थापित प्रकल्प देख आइए, बाबा रामदेव के आंदोलनों पर नज़र डालिए, गायत्री परिवार के कामों को देखिये, पानी बचाने वाले राजेंद्र जी पर गौर कीजिए, एक गांव को ही स्वर्ग बना देने वाले अन्ना हजारे जी को याद कीजिए. इस तरह के सैकड़ों संगठन हैं जिन्हें अपनी शानदार उपलब्धि के लिए नक्सलियों को उकसाने की ज़रूरत नही पडी। 
उसी बस्तर या उड़ीसा या ऐसे ही आदिवासी क्षेत्रों में बिना किसी श्रेय की इच्छा किए संघ के विभिन्न संगठनों को काम करते देखिए। वो तो बिना किसी जोनाथन अवॉर्ड की कामना के अपना काम बदस्तूर संपादित करते रहते हैं। उन्हें मालूम है कि आत्मसंतोष के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिलना। बात चाहे रामकृष्ण मिशन आश्रम की हो या फिर जांजगीर में कुष्ठ आश्रम चलाने वाले संगठन की। इनकी सेवाओं के आगे आपको विनायक जैसे लोग बौने ही दिखेंगे। लेकिन चूंकि यह कुछ लोगों को मालूम है कि लोकतंत्र को गाली दो तो सारी शोहरत आपके क़दमों में होगी। कुछ-कुछ उसी तरह जैसे सैकड़ों महान लेखक, साहित्य को समृद्ध करते मर गए लेकिन गाली देने की कुव्वत हो तो एक किताब की बदौलत अरुंधति विश्वविख्यात लेखिका हो जाती हैं। 
आप मानवाधिकार हनन का दुष्प्रचार करते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमिटी बस्तर आती है और उसको ऐसे कोई सबूत नहीं मिलते। आप जन समर्थन की बात करते हैं लेकिन सभी प्रभावित क्षेत्रों में नक्सल फरमान के बावजूद शहरों से ज्यादा मतदान होता है और लोकतंत्र जीत जाता है। जाहिर है दुनिया भर में साख प्राप्त देश का चुनाव आयोग खास कर ईवीएम के ज़माने में खुद ही तो नहीं वोट डाल देगा? तो देश की सभी प्रणाली गलत ? हर वो चीज़ गलत जो इनके अनुरूप न हो भले ही वह विभिन्न मानकों पर तैयार की गई, विभिन्न तथ्यों पर कसी गई हो। ज़मानत मिल जाए तो कोर्ट सही, सज़ा दे दे तो गलत। इनकी प्रेस विज्ञप्तियों को अखबार अपना लीड बनाते रहे तो ठीक लेकिन अगर असहज सवाल खड़े कर दे तो बिकाऊ। इनके लोग हत्या करें तो ठीक पुलिस कारवाई करे तो मानवाधिकार हनन।  
मै इस ब्लॉग के माध्यम से डॉ. सेन के समर्थको से पूछता हु कि आप लोगों ने विनायक सेन के काफ़ी तारीफ कर दी और अगर हम आप के बात को सच मान भी लें .पर कोई पागल ही होगा जो एक सेवा करने वाले इंसान को जेल में बंद कर दे ,वो भी एंटी नैशनल एलिमेंट होने के नाते. और अगर आप का विश्वास इतना ही सच्चा है तो अभी तो सज़ा लोवर कोर्ट से हुई है, अभी तो हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट बचा हुआ है वैसे जनता के सामने सारे मानवाधिकारी लोगो की असलियत है लेकिन इस तरह से छोटे कोर्ट के फैसले पर कोर्ट पर इतना प्रेशर बनाना.. दाल में कुछ काला होने का संकेत देता है
इनके कुतर्कों के खिलाफ तथ्यों की कमी नहीं है। जहां तक इस फैसले का सवाल है तो निश्चित ही जो भी सच होगा वो सुप्रीम कोर्ट तक से छन कर आ ही जाएगा। बस इस मौके पर इतना ही कहना समीचीन होगा कि लाख कमियों के बावजूद हमारे लोकतंत्र और उसके विभिन्न अंगों में पर्याप्त ताकत है कि वह विडंबना से पार पाए। बुराइयां जितनी हो लेकिन हमें अपना समाधान इसी तंत्र में तलाशना है। यहां के लोकतंत्र को हिटलर के चश्मे से देखने वालों की नज़र ठीक कर देने के लिए विधि द्वारा जो भी प्रक्रिया अपनायी जाय वो सही है। कोई लाख चिल्लाये लेकिन आज की तारीख में हमारी प्रणाली द्वारा अपराधी साबित हुए विनायक हमारे नायक नहीं हो सकते।

आप कि प्रतिक्रियाये आमंत्रित है - अजय दुबे

Tuesday 11 January 2011

अगर सुर साध लें ....

सुर -असुर यानी कि देव और दानव। जिसने भी इस शब्द युग्म को पहली बार पहचाना होगा, वह जरूर एक सिद्ध संगीतकार और आध्यात्मिक अनुभव वाला मनोवैज्ञानिक रहा होगा। फिल्म 'बैजू बावरा' की एक लाइन है, 'सुर ना सजे क्या गाऊं मैं।' जब सुर नहीं सधते, तो गाना नहीं हो पाता। सुर यानी कि ध्वनियों का सुंदरतम तालमेल, इतना सुंदर संतुलन कि वे संगीत में बदल जाएं। इतना दमखम पैदा हो जाए कि गाने वाला तो क्या, सुनने वाले भी खो जाएं उन स्वर लहरियों में। और कोई ताज्जुब नहीं कि आप उनके जरिये इश्वर तक पहुंच जाएं।

ठीक उसके उलट, जब सुर सधे नहीं, सजे नहीं, तो वही हो जाता है असुर या बेसुर। ध्वनियां तो यहां भी हैं। लेकिन यहां उनका व्याकरण मौजूद नहीं है। व्याकरण, यानी कि नियम, एक अनुशासन, एक व्यवस्था। यदि ऐसा नहीं हो तो वे ध्वनियां महज एक शोर हैं। उस ध्वनि से कान तो गूंजेंगे, लेकिन दिल और दिमाग तक कुछ पहुंचेगा नहीं। ध्वनि है, लेकिन यदि उसके अर्थ नहीं हैं, तो यह दिल-ओ-दिमाग के काम की चीज नहीं है। थोड़ी ही देर में ऊब होने लगेगी इससे।

यही है मतलब सुर और असुर का। प्रकृति ने हमारे अंदर मूल रूप से नौ स्थायी भाव डाल रखे हैं -प्रेम, करुणा, हास्य, क्रोध, वीर, वीभत्स, रौद्र तथा शांत आदि। ये हमारे मूल भाव हैं, जिन्हें साहित्य में 'रस' कहा जाता है। हमारा कमाल इस बात में है कि हम कैसे इन नौ रसों में तालमेल बिठाते हैं। जितना अच्छा तालमेल, जितना अच्छा सामंजस्य, उतना ही हमारे अंतर्जगत का संतुलन। और जितना अच्छा होगा हमारे अंतर्जगत का संतुलन, उतने ही अधिक हम सुरत्व के, देवत्व के नजदीक होंगे।

हम सभी अपने-अपने अंतर्मन में अपनी-अपनी वीणा लिए हुए हैं। इस वीणा के यही नौ तार हैं। कब कौन से तार को झंकृत करना है और वह भी कितने दबाव के साथ और कितने समय के लिए, यही तो संगीतकार की उंगलियों की जादूगरी होती है। एक आम आदमी के लिए वीणा कुछ खास नहीं है। वह उत्सुकतावश उसकी तारों पर उगलियां फेरकर कुछ ऐसी ध्वनि-तरंगें पैदा करेगा, जिनका कोई मतलब नहीं होगा। लेकिन क्या कोई संगीतकार भी ऐसा करेगा?

उस ने घंटों-घंटों रियाज करके इस कला को हासिल किया है। उसने इसके लिए साधना की है। सुरों को साधा है। इसीलिए इसके सुर सध गए हैं। जिसके सुर सध गए हों, उसे यह चिंता करने की जरूरत नहीं रहती कि 'क्या गाऊं मैं।' वह तो यह भी नहीं पूछता कि मैं गाऊं या न गाऊं। इसके तो बस जी में आना चाहिए कि 'गाना है' कि बस गाने लगेगा। बल्कि वह जो कुछ कहेगा, वही एक गीत और संगीत बन जाएगा, क्योंकि अंदर के नौ तारों पर उसका कमांड जो हो गया है। इसलिए वह जो कुछ करेगा, वह सुरमय होगा। क्या देवत्व इसके अतिरिक्त भी कुछ है?

हमारा आंतरिक असंतुलन हमें कहीं का नहीं रहने देता। संतुलन गड़बड़ाया नहीं कि हमने अपना विवेक खो दिया। जब हमारा विवेक खो गया , जब हमारा विवेक ही हमारे साथ नहीं रहा , हमारे हाथ नहीं रहा , तो फिर एक दानव और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा , क्योंकि देव और दानव में जो मूल फर्क है , वह निर्णय लेने का ही तो फर्क है। देव के निर्णय सभी के कल्याण से जुड़े होते हैं , जबकि दानव के निर्णय सभी के विनाश से , मात्र स्वयं के कल्याण से। जब इसका निर्धारण करने वाला तत्व विवेक ही गायब हो गया , तो फिर पास में बचा ही क्या ? तो जाहिर है कि जिसका सुर खो गया , वह असुर हो गया। 

आपके क्या विचार है ? आपके विचार आमंत्रित है

Friday 7 January 2011

नव दशक की शुभकामनाएँ!

दूसरी सहस्राब्दी के दूसरे दशक की शुरुआत आप सबको मुबारक हो!
अब से दस वर्ष पूर्व हम सब एक इतिहास का हिस्सा बने. हमें वह श्रेय हासिल हुआ जो हमारे पूर्वजों और हमारी आने वाली कई नस्लों को नहीं मिलेगा. यानी एक सहस्राब्दी से निकल कर दूसरी सहस्राब्दी में प्रवेश.
आगे आने वाली पीढ़ियाँ शायद हमारा नाम न जान पाएँ लेकिन हम यदि वर्ष 2000 से पहले जन्मे हैं तो हमारा शुमार उन लोगों में ज़रूर है जो विलक्षण हैं, यानी इतिहास बदलता देख चुके हैं.
यह वरदान था. लेकिन इसके साथ आईं ज़िम्मेदारियाँ. हम कैसी दुनिया का निर्माण कर रहे हैं.
क्या हम अगली नस्ल को एक ऐसे विश्व की धरोहर दे कर जाएँगे जहाँ हिंसा न हो, जातीय और नस्ली भेदभाव न हों, बीमारियाँ न हों और न ही हो विद्वेष और बदले की भावना.
आप कहेंगे यह हमारा काम नहीं है और न ही हमारे बस में है.
मेरा कहना है यदि हममें से हर एक अपने आसपास का माहौल सुधार सके, अपने परिवार में यह बीज बो सके जो आगे चल कर एक फलदायक पेड़ का रूप ले ले तो यह काम कोई मुश्किल नहीं है.

इस ब्लाग के माध्यम से मेरा आपसे अपील है कि आज एक संकल्प कीजिए.
दूसरी सहस्राब्दी का दूसरा दशक आप संवारेंगे. जहाँ तक हो सकेगा इसमें हाथ बंटाएँगे. अपने को कमतर नहीं समझेंगे और इस बात को पहचानेंगे कि यह देश, यह दुनिया आपकी है और आप इसे रहने लायक़ बनाने की क्षमता रखते हैं.
क्या आप वह दिन ला पाएँगे जब हमारी नई पीढ़ियाँ पूछें कि बेईमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वतख़ोरी, झूठ, लालच और धोखाधड़ी किस चिड़िया का नाम है?

आप वह दिन ला सकते हैं. आप बहुत कुछ कर सकते हैं!

 नव दशक की शुभकामनाएँ!

आपसभी का विचार आमंत्रित है- अजय कुमार दुबे